Wednesday, 30 July 2014
Sunday, 27 July 2014
क्या खेती को लाभ का धन्धा बनाया जा सकता है?
-डा. रवीन्द्र पस्तोर
हमारे देश में एक कहावत प्रचलित थी - उत्तम खेती मध्यम बान,
अधम चाकरी भींख निदान। यह कहावत आज की बाजार आधारित अर्थव्यवस्था में बिलकुल उलट गई है। इसका कारण यह है कि खेती को कभी भी हमने धन्धा नही माना,
वह तो आज भी जीवकोपार्जन का साधन ही है। जैसे-जैसे बाजार आधारित अर्थव्यवस्था का विकास होता गया वैसे-वैसे खेती की नीतियों में सरकार द्वारा परिवर्तन नही किये गये। सरकार की नीतियों में हमेशा से देश की बढ़ती हुई जनसंखया का सस्ते अनाज से पेट भरना प्राथमिकता रही। इसी कारण खेती को आज भी व्यवसाय का दर्जा नही दिया गया। अनुदान आधारित नीतियों के कारण खेती के अनुदानों एवं उत्पादों के व्यापार एवं वितरण पर सरकार का पूर्णतः नियत्रंण है। एक ओर प्रतिदिन थोक मूल्य सूचकांक के बढ़ने का कारण खेती के उत्पादों के बढ़ते मूल्य माने जा रहे है तो दूसरी तरफ किसान लगातार उचित मूल्य न मिलने की शिकायत कर रहे है। यह एक ऐसा कुचक्र बन गया है कि जिससे निकलने का रास्ता ढूढे़ से भी नही मिल रहा है। ऐसे में यह सवाल है कि क्या खेती को लाभ का धन्धा बनाया जा सकता है? मेरी मान्यता यह है कि इस सवाल का जबाव हां हो सकता है यदि सरकार के नीतिगत बदलाबों के साथ किसान के खेती करने के परम्परागत व्यवहार में बदलाव लाया जावे। ऐसा नही है कि विगत् सालों में इस दिशा में प्रयास नही किये गये, लेकिन उन प्रयासों के वांछित परिणाम नही आये। क्योकि ये प्रयास इस क्षेत्र के हितधारकों द्वारा अलग-अलग समय में अपने-अपने तरीके से किये गये। यदि यह बदलाव उत्पादक,
उपभोक्ता एवं बाजार में एक साथ लाने पर ही वांछित परिणाम आ सकते है।
इस क्रमिक लेख के माध्यम से हम यह जानने का प्रयास करेगे कि वर्तमान में खेती करने के तरीके क्या है, उनके परिणाम क्या होते है तथा वर्तमान समय की आवश्यकता की मांग के आधार पर क्या परिवर्तन करने की आवश्यकता है? इस कड़ी में हम सबसे पहले यह देखे कि वर्तमान में खेती का परिदृश्य क्या है?
हमारे यहां भूमि पर मूलरुप से शासन का अधिकार होता है तथा शासन कानून के द्वारा अपने नगारिकों को जमीन के उपयोग के अधिकार देता है। इसी कड़ी में शासन द्वारा उत्तराधिकार के हस्तांतरण का कानून लागू किया है जिसके तहत भूमि धारक की मृत्यू होने पर उसके अधिकार की भूमि उनके जीवित विधिसंमत वारिसों में बराबर-बराबर वितरित की जाती है। दूसरा कानून सींलिग अधिनियम है जिसके तहत कोई व्यक्ति या परिवार ग्रामीण क्षेत्र में एक निर्धारित सीमा से अधिक भूमि धारित नहीं कर सकता। प्रतिदिन भूधारकों की मृत्यू होने के कारण भूमियां दिन-प्रतिदिन बटती जाने से जोत का आकार छोटा होता जा रहा है तथा लघू एवं सीमांत किसानों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है। जोत का आकार छोटा होने के कारण खेती करना अलाभकारी हो जाती है तथा किसान के अभाव की अर्थव्यवस्था का जन्म यही से होता है। देश के सकल घरेलू उत्पाद में खेती का योगदान निरंतर कम होता जा रहा है जबकि कौशल का अभाव होने के कारण अर्थव्यवस्था में उत्पन्न होने बाले रोजगार के अवसरों का लाभ नही ले पा रहे है और घाटे के बाबजूद मजबूरी में खेती कर रहे है।
मजबूरीवश की जाने वाली खेती बाजार की मांग को ध्यान में रख कर नही की जाती है बल्कि परिवार के भरण-पोषण को ध्यान में रख कर छोटी जोत पर एक साथ थोड़ी-थोड़ी अनेक फसलें उगाई जाती है। यदि पविार के उपभोग के बाद उपज बच जाती है तो स्थानीय व्यापारी को बेच दी जाती है। क्योकि उपज की मात्रा कम होने के कारण बड़ी मण्डी में उपज ले जाना संभव नही हो पाता है। स्थानीय व्यापारी उपज का न्यूनतम मूल्य देता है। उचित मूल्य न मिलने के कारण किसान अच्छे बीज,
पर्याप्त खाद, कीटनाशक या निदाई गुड़ाई, सिंचाई पर न्यूनतम व्यय करता है जिससे प्रति एकड़ उपज कम होती है। जोत का आकार कम होने से बैंक पर्याप्त कर्ज नही देते जिससे आधुनिक तकनीक एवं मशीनरी पर खर्च करना संभव नही होता है। यह अभाव का अर्थशात्र निरंतर साल दर साल एवं पींढ़ी दर पींढी चलता जा रहा है। परिवार में सदस्यों की निरंतर वढ़ती हुई संख्या भूमि पर निर्भरता निरंतर बढ़ रही है।
आज एक गांव में लगभग सभी किसान एक मौसम में एक फसल बोते है। जैसे उदाहरण के लिए रवि मौसम में यदि गांव में तीन सौ किसान है तो वे गेहू की फसल बोते है। लेकिन उक्त किसान अलग-अलग किश्म के बीज बोते है तथा उनका खेती करने का तरीका भी अलग अलग है। इस कारण वे तीन सौ बार अनाज वह खरीदते है तथा तीन सौ बार मण्ड़ी में बेचने जाते है। इससे किसान कम मात्रा में आदान प्रदाता की कड़ी में अंतिम व्यापारी से उच्चतम मूल्य पर क्रय करते है तथा उत्पादन की कम मात्रा होने के कारण आपूर्ति की कड़ी में अंतिम व्यापारी को न्यूनतम मूल्य पर बेचते है। यदि उक्त किसान एक साथ एक जैसे तरीके से खेती करना प्रारम्भ कर दे तो वे व्यापार के इस कुचक्र को तोड़ सकते है। प्रदेश के अनेक जिलों में किसानो के द्वारा प्रोडयूसर कम्पनी के रुप में रजिस्टर कर इस पद्धति से काम करना प्रारम्भ किया है जिसके बड़े आश्चर्यजनक परिणाम निकले है।
इन किसानों की कम्पनियों के शेयर होल्डर किसानों के खेतों एवं खलियानों तथा घरों में मनरेगा से वह सभी आवश्यक काम किये जा सकते है जिन से किसानों की परिसम्पतियां अधिक उत्पादक हो सके। ये सदस्य ग्राम सभा के माध्यम से अपने काम ग्राम की वार्षिक कामों की सूची में जुड़बा सकते है। अगले माह में प्रत्येक ग्राम में यह कार्यवाही प्रारम्भ की जा रही है। मनरेगा के उपयंत्री एवं ग्राम रोजगार सहायक उनके क्षेत्र में गठित प्रोडयूसर कम्पनियों की सूची जिला पंचायत से प्राप्त कर संबंधित संस्था के शेयर होल्डर किसानों की सूची ले कर उन्हें ट्राजिंट वाक में सम्मिलित करे तथा कामों को चिन्हित कर जोड़े। मनरेगा में उपलब्ध प्रावधानों का लाभ ले कर खेती को लाभ का व्यवसाय बनाया जा सकता है।
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